‘कोसी के किसान’ सेमिनार में छलकी किसानों की पीड़ा,बाढ़ की विभीषिका पर हुई चर्चा,तटबंधों पर उठाए गए सवाल

सुपौल।हर साल बाढ़ की विभीषिका झेलने वाले कोसी क्षेत्र में इसके स्थाई समाधान के लिए ठोस राजनीतिक पहल को मशहूर बाढ़ और बांध विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र ने ज़रूरी करार दिया। उन्होंने सरकारी मुलाज़िम रहते हुए अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि आम तौर पर बाढ़ के वक़्त सरकार खानापूर्ति में जुट जाती है। दिनेश मिश्र ने राहत सामग्री के नाम पर एनजीओ की भूमिका पर कुछ सवाल उठाए। सुपौल के कालिकापुर में कोसी प्रतिष्ठान के ‘कोसी के किसान’सेमिनार के दूसरे दिन उन्होंने गुज़रे दौर की भीषण बाढ़ को याद करते हुए कहा कि जिस तरह से इसका निदान खोजने की कोशिश की जा रही है, उस तरीक़े में कई खोट हैं। उन्होंने कहा कि कोसी नदी से आने वाली बाढ़ भारत और नेपाल के लिए बड़ी राजनीतिक खींचतान का मुद्दा ज़रूर रहा है, लेकिन दोनों तरफ़ से इसके स्थाई समाधान की कोशिश कम देखी गई। दिनेश मिश्र ने बाढ़ से निपटने के लिए देसी समाधानों की पैरोकारी की।

मशहूर पत्रकार अरविंद मोहन ने भी बाढ़ के वक़्त सरकारी महकमा और एनजीओ की बजाए स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी बढ़ाने पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हर गांव में नाव रखने वाले व्यक्ति को सरकारी अनुदान मिलना चाहिए ताकि आपदा के वक़्त वो स्थानीय लोगों की मदद कर सके। उन्होंने सरकारी योजनाओं को सही तरीक़े से लागू कराने की ज़रूरत पर बल दिया। अरविंद मोहन ने आईसीडीएस और मिड डे मील जैसी योजना की प्रशंसा तो ज़रूर की, लेकिन ये भी कहा कि मिड डे मील जैसी योजनाओं में ताज़ा खाना के बजाए पैकेटबंद खाना लागू कराने के लिए बड़ी कंपनियां ज़ोर लगा रही हैं, ताकि वो मोटी कमाई कर सके। अरविंद मोहन ने इस बात को सिरे से ख़ारिज कर दिया कि चंद लोगों के अमीर बनने का फ़ायदा देश के बाक़ी ग़रीबों को मिलेगा। उन्होंने कहा कि देश में इसके बिल्कुल उलट हालात पैदा हो गए हैं और अमीरों-ग़रीबों के बीच की खाई और बढ़ती जा रही है। अरविंद मोहन ने मनरेगा को ग़रीबों के लिए अच्छी योजना बताते हुए कहा कि इससे मज़दूरी दर बढ़ने में मदद मिली है।

पत्रकार शंभू भद्रा ने कहा कि ग़रीबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं से ग़रीबी का उन्मूलन नहीं होगा, बल्कि इसके लिए ग़रीबों को आत्मनिर्भर बनाए जाने की ज़रूरत है। उन्होंने कई राज्यों में दशकों तक रहने वाली सरकारों का हवाला देते हुए कहा कि कई राजनीतिक पार्टियों और मुख्यमंत्रियों ने अलग-अलग राज्यों में लंबे समय तक शासन किया और जनता ने उन्हें कई बार मौक़ा दिया, लेकिन इसके बावजूद लोगों की माली हालत पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। इस दौरान युवा शोधार्थी सुजीत कुमार सिन्हा ने कोसी प्रतिष्ठान की तरफ़ से स्थानीय स्तर पर किए गए सर्वेक्षण के ज़रिए ये बताया कि किस तरह लोग सरकारी योजनाओं से महरूम है। उन्होंने कहा सरकार भ्रष्टाचार को ‘योजना लागू करने में हुई देरी’ बताकर टाल देती है।

पत्रकार दिलीप ख़ान ने सरकारी योजनाओं में हीला-हवाली को कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के ख़िलाफ़ बताया। उन्होंने कहा कि एक तरफ़ ग़रीबों के लिए योजनाएं चलाई जाती हैं और ठीक उसी वक़्त सरकार ग़रीबी की परिभाषा बदलकर करोड़ों लोगों को ग़रीबी के दायरे से ही बाहर निकाल देती है। इस तरह, जिन्हें योजनाओं का लाभ मिलना चाहिए, वो सरकारी बाज़ीगरी का शिकार होकर इससे वंचित रह जाते हैं। उन्होंने कहा कि इस पंचायत को खुले में शौच से मुक्त घोषित किए जाने के बावजूद 80 फ़ीसदी लोग आज भी मैदान मे जाने को मजबूर हैं। दिलीप ख़ान ने कहा कि देश के बाक़ी हिस्सों में भी कमोबेश यही कहानी है।

 

पत्रकार पुष्यमित्र ने आंकड़ों के ज़रिए ये कहा कि जिस रफ़्तार से बिहार में तटबंध बने हैं, उसी रफ़्तार से बाढ़ की चपेट में आने वाली ज़मीन की मात्रा भी बढ़ती गई। उन्होंने तटबंध की उपयोगिता पर कई सवाल उठाए। पुष्यमित्र ने कोसी को डायन या बिहार का शोक करार दिए जाने पर आपत्ति जाहिर की और कहा कि कोसी किनारे रहने वाले लोगों के मन में कोसी को लेकर इज़्ज़त का भाव है। पुष्यमित्र ने बाढ़ की वजह से आने वाली उपजाऊ मिट्टी समेत मछली पालन में बाढ़ की सकारात्मक भूमिका को भी रेखांकित किया।

इस दौरान पानी के मुद्दे पर लगातार सक्रिय रहने वाले रणजीव ने कहा कि कोसी इलाक़े में सामाजिक कार्यकर्ताओं की स्वीकार्यता नहीं बनी है। उन्होंने बाढ़ और नदियों को लेकर इलाक़े में हुए संघर्ष से लोगों को रूबरू कराया। रणजीव ने कहा कि धीरे-धीरे अब जलवायु परिवर्तन का सीधा असर बड़ी आपदा के रूप में देखने को मिलने लगा है।

रामदेव सिंह ने कोसी की बाढ़ की कई यादें सुनाईं और कहा कि सरकार को इस मामले में संजीदगी से काम करना चाहिए।

सेमिनार के आख़िरी सत्र में ‘लोक कला, संस्कृति और हस्तकलाएं’ पर रंगकर्मी अकबर रिज़्वी ने इस आरोप को सिरे से ख़ारिज कर दिया कि लोक कलाएं विलुप्त हो रही हैं। उन्होंने कहा कि पेशेवर लोक कला समूह ज़रूर सिमट रहे हैं, लेकिन दौर बदलने के साथ-साथ कलाओं ने भी अपना रूप बदला है और ये पेशेवर होने की बजाए निजी दायरे में और रीति-रिवाजों के रूप में ज़िंदा है। इस दौरान वरिष्ठ रंगकर्मी कुणाल ने मैथिली और कोसी की कलाओं पर विस्तार से अपनी बात रखी और कहा कि लोक कलाओं के दायरे और विस्तार देने की ज़रूरत है। कवयित्री सुष्मिता पाठक और कवि-कथाकार अरविंद ठाकुर ने संस्कृति पर कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। इस सत्र का संचालन कर रहे कमलानंद झा ने कोसी की समृद्ध कलाओं का हवाला दिया और उम्मीद जताई कि आगे भी ये ज़िंदा रहेंगी।

इसके बाद राम बहादुर रेणु ने सुरेन्द्र स्निग्ध और कुछ अज्ञात कवियों की कोसी से जुड़ी कविताओं का पाठ किया।

दो दिनों से चल रहे इस कार्यक्रम का समापन सति कमला नाच के साथ हुआ। कालिकापुर में कोसी प्रतिष्ठान की तरफ़ से इस तरह का ये पहला कार्यक्रम है। कार्यक्रम के संयोजन गौरीनाथ ने कहा कि आगे भी इस तरह की मुहिम जारी रहेगी। आने वाले दिनों में प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक समेत देश के कई नामचीन चित्रकार एक हफ़्ते तक कालिकापुर में कार्यशाला में हिस्सा लेंगे।

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