कैथोलिक धर्मगुरु पोप फ्रांसिस का निधन, 88 वर्ष की आयु मे ली अंतिम सांस

नई दिल्ली। कैथोलिक ईसाई समुदाय के सर्वोच्च धर्मगुरु, पोप फ्रांसिस का 88 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वेटिकन के अनुसार उन्होंने आज सुबह 7 बजकर 35 मिनट पर अंतिम सांस ली। वे लंबे समय से कई स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे थे। फरवरी में उन्हें रोम के जेमेली अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां उनका निमोनिया और एनीमिया का इलाज चल रहा था। उन्हें फेफड़ों में संक्रमण की शिकायत थी, जिसके चलते वे पाँच सप्ताह तक अस्पताल में रहे। जांच में उनके किडनी फेल होने और प्लेटलेट्स की संख्या कम होने के संकेत भी मिले थे, हालांकि बाद में 14 मार्च को उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी। पोप फ्रांसिस का जन्म 17 दिसंबर 1936 को अर्जेंटीना के फ्लोरेंस शहर में हुआ था। उनका मूल नाम जॉर्ज मारियो बर्गोग्लियो था। वे इटली से अर्जेंटीना पलायन करने वाले एक परिवार से थे, जिनके दादा-दादी इटली के तानाशाह मुसोलिनी के शासन से बचकर अर्जेंटीना पहुंचे थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में बिताया। यहीं से उन्होंने दर्शनशास्त्र और धर्मशास्त्र में मास्टर डिग्री प्राप्त की। वे सोसाइटी ऑफ जीसस (जेसुइट्स) के सदस्य थे और इस धार्मिक समुदाय से जुड़े पहले ऐसे व्यक्ति बने जिन्हें पोप के रूप में चुना गया। वर्ष 1998 में वे ब्यूनस आयर्स के आर्कबिशप बने और 2001 में पोप जॉन पॉल द्वितीय ने उन्हें कार्डिनल घोषित किया। इसके बाद वर्ष 2013 में वे पोप बेनेडिक्ट सोलहवें के उत्तराधिकारी बने और रोमन कैथोलिक चर्च के 266वें पोप के रूप में नियुक्त हुए। वे इतिहास के पहले लैटिन अमेरिकी और पहले गैर-यूरोपीय पोप थे, जिन्होंने बीते 1000 वर्षों में इस पद को संभाला। पोप फ्रांसिस ने अपने कार्यकाल में दुनिया भर में शांति, सामाजिक समानता, गरीबों की सहायता, और धार्मिक संवाद को बढ़ावा दिया। वे पर्यावरण संरक्षण और आप्रवासी अधिकारों के प्रबल समर्थक थे। उनके सरल जीवन और करुणामयी दृष्टिकोण ने उन्हें विश्वभर में लोकप्रिय बनाया। उनकी मृत्यु न केवल कैथोलिक समुदाय के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक अपूरणीय क्षति है। वे एक ऐसे युग का प्रतीक थे, जिसमें धार्मिक नेतृत्व का स्वरूप अधिक मानवीय, संवेदनशील और सर्वसमावेशी बना। उनका जीवन प्रेरणा का स्रोत रहेगा।

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