बिहार में जारी रहेगा विशेष भूमि सर्वेक्षण, हाईकोर्ट से जनहित याचिका को याचिकाकर्ता ने लिया वापस

पटना। बिहार में चल रहे राज्यव्यापी जमीन सर्वेक्षण को लेकर शुक्रवार को एक महत्वपूर्ण मोड़ आया जब जनहित याचिका को याचिकाकर्ता अधिवक्ता राजीव रंजन सिंह ने वापस ले लिया। इस याचिका में जमीन सर्वेक्षण प्रक्रिया पर रोक लगाने की मांग की गई थी, जिसे पटना हाई कोर्ट ने सुनवाई के बाद खारिज कर दिया। चीफ जस्टिस के. विनोद चंद्रन की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने यह निर्णय सुनाया। याचिकाकर्ता का तर्क था कि वर्तमान सर्वे में कई खामियां हैं और इससे भविष्य में समस्याएं बढ़ सकती हैं, परंतु कोर्ट ने कहा कि याचिका में पर्याप्त और सटीक विवरण का अभाव है। अधिवक्ता राजीव रंजन सिंह ने 18 सितंबर, 2024 को पटना हाई कोर्ट में यह जनहित याचिका दायर की थी। इस याचिका में राज्य में चल रहे जमीन सर्वेक्षण पर रोक लगाने की मांग की गई थी, जो सरकार द्वारा भूमि सुधार और जमीन के स्वामित्व के दावों को साफ करने के लिए शुरू किया गया है। याचिकाकर्ता का मुख्य आरोप था कि इस सर्वेक्षण प्रक्रिया में कई कानूनी खामियां हैं। उनका कहना था कि सर्वे के दौरान कोई कानूनी तंत्र सही ढंग से लागू नहीं किया गया और सर्वेक्षण में आने वाली कठिनाइयों की अनदेखी की जा रही है। याचिका में यह भी तर्क दिया गया था कि इस सर्वे से जमीन के स्वामित्व को लेकर नई समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, जिससे भविष्य में मुकदमेबाजी के मामलों में बढ़ोतरी की संभावना है। याचिकाकर्ता ने 7 सितंबर, 2024 को राज्य के मुख्य सचिव और राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के एडिशनल चीफ सेक्रेटरी को अभ्यावेदन देकर इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखा था। याचिका में मुख्य रूप से यह तर्क दिया गया कि जमीन के स्वामित्व और अधिकारों से संबंधित कई मामले पहले से ही अदालतों में लंबित हैं, और इन मामलों के निपटारे के बिना सर्वेक्षण आगे बढ़ाने से कानूनी समस्याएं बढ़ सकती हैं। शुक्रवार को इस जनहित याचिका पर पटना हाई कोर्ट में सुनवाई हुई। सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने याचिका की जांच करते हुए पाया कि इसमें पर्याप्त ब्यौरा और तथ्यात्मक जानकारी का अभाव है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता से पूछा कि सर्वेक्षण प्रक्रिया में जिन खामियों का जिक्र किया गया है, उसके लिए ठोस और सटीक प्रमाण कहां हैं। कोर्ट का मानना था कि याचिका में प्रस्तुत किए गए तर्क पर्याप्त रूप से विस्तृत और प्रमाणित नहीं थे, जिससे यह साबित हो सके कि सर्वेक्षण प्रक्रिया वास्तव में अवैध है या उससे कोई वास्तविक नुकसान होगा। याचिकाकर्ता ने कोर्ट की इस टिप्पणी को स्वीकार करते हुए याचिका वापस लेने का निर्णय लिया। उन्होंने कहा कि याचिका में पर्याप्त जानकारी और सटीक ब्यौरा न होने की वजह से इसे वापस लेना ही उचित होगा। इसके बाद कोर्ट ने औपचारिक रूप से याचिका को खारिज कर दिया। याचिकाकर्ता अधिवक्ता राजीव रंजन सिंह का दावा था कि वर्तमान जमीन सर्वेक्षण से कई कानूनी और व्यावहारिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं। उनका कहना था कि राज्य सरकार ने इस सर्वेक्षण के लिए जो प्रक्रिया अपनाई है, वह उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं कर रही है। इस सर्वेक्षण में राज्य के विभिन्न हिस्सों में जमीनों के स्वामित्व को लेकर अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो रही है, और इससे भूमि विवादों में वृद्धि होने की संभावना है। याचिकाकर्ता ने इस बात पर भी जोर दिया कि राज्य के भूमि सुधार और राजस्व विभाग को पहले से ही लंबित मामलों का समाधान करना चाहिए, जिनमें जमीन के अधिकार से संबंधित विवाद अदालतों में हैं। ऐसे में सर्वेक्षण की मौजूदा प्रक्रिया से स्थिति और जटिल हो सकती है, जिससे राज्य के कानूनी तंत्र पर अतिरिक्त बोझ पड़ने की संभावना है। पटना हाईकोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि इसमें प्रस्तुत तर्कों और आरोपों के समर्थन में कोई ठोस सबूत या विस्तृत जानकारी नहीं दी गई थी। अदालत ने यह भी माना कि जमीन सर्वेक्षण जैसे व्यापक कार्यक्रम में कुछ समस्याएं हो सकती हैं, लेकिन इसके लिए मजबूत तथ्यों और सबूतों की आवश्यकता होती है ताकि सर्वेक्षण पर रोक लगाने जैसे गंभीर कदम उठाए जा सकें। अंत में, याचिकाकर्ता ने याचिका को वापस लेने का निर्णय लिया, जो अदालत द्वारा खारिज कर दी गई। हालांकि, यह मामला भविष्य में दोबारा उठ सकता है, यदि याचिकाकर्ता ठोस तथ्यों और कानूनी आधारों के साथ इसे पुनः प्रस्तुत करने का निर्णय लेते हैं। पटना हाईकोर्ट में दायर इस याचिका के खारिज होने से यह स्पष्ट हो गया है कि जमीन सर्वेक्षण जैसे जटिल मुद्दों पर किसी भी प्रकार की कानूनी चुनौती के लिए विस्तृत और ठोस आधार आवश्यक है। बिहार में चल रहा यह जमीन सर्वेक्षण राज्य के भूमि सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है, और इसका उद्देश्य भूमि विवादों को सुलझाना और स्वामित्व के दावों को स्पष्ट करना है। यद्यपि इसमें कुछ कानूनी और प्रशासनिक चुनौतियां हो सकती हैं, लेकिन इन्हें सही तरीके से प्रस्तुत करना आवश्यक है ताकि अदालतें ठोस निर्णय ले सकें।
