कैमरे ही नजर में छठ महापर्व: सात समंदर पार भी छठ पूजा की धूम यूं ही नहीं

फुलवारी शरीफ (अजीत ) । लोक आस्था का महापर्व छठ पूजा सूर्य और साक्षात प्रकृति पूजा से जुड़ा है तभी तो देश प्रदेश और विदेशों में रहने वाले लोग भी अपनी माटी घर आकर ही इस महापर्व में शामिल होकर वर्षो पुरानी परंपरा का हिस्सा बनते है। महाभारत काल से शुरू हुई छठी मईया की पूजा और सूर्योपासना का महापर्व को लेकर शुद्धता और स्वक्षता अमिट संगम देखने को मिलता है। कहा जाता है कि सूर्य पुत्र कर्ण ने सबसे पहले सूर्य देव को कमर तक सरोवर के जल में घंटो खड़े होकर अर्ध्य दिया था जो परंपरा आज भी चली आ रही है । लोक परंपरा का महापर्व पर व्रतियों के संकल्प यानी नहाय खाय से शुरू हो चुका है । आज खरना की तैयारियों में घर की साफ सफाई के बाद गंगा जल से स्नान के बाद शाम में खरना प्रसाद तैयार करने में लोग व्रतियों के साथ लगे हुए हैं । कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथि को छठ पर्व मनाया जाता है और खरना पंचमी तिथि को किया जाता है जो इस साल 12 नवंबर को मनाया जा रहा है। आमतौर पर छठ पर्व को बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ एक इलाकों में मनाया जाने वाला पर्व मानते हैं। लेकिन अब इस पर्व ने अपनी सीमाओं को लांघकर विदेशों में भी अपनी जगह बना ली है। इन क्षेत्रों के लोग अपने साथ छठ व्रत की आस्था भी अपने साथ लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों और विदेशों में भी पहुंच चुके हैं। इसलिए छठ अब केवल क्षेत्रीय पर्व ना होकर देश भर में मनाया जाने वाला पर्व बन चुका है।

बिहार में छठ महापर्व की रौनक देखते ही बन रही है. नहाए खाए के बाद आज लोग खरना की तैयारी में जुटे हैं. शाम में पूजा के बाद गुड़ की खीर प्रसाद के रूप में वितरण की जाती है. छठ का व्रत करने वाले महिला और पुरुष प्रसाद ग्रहण करने के बाद 36 घंटे तक निर्जला उपवास रखते हैं. खरना के अगले दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा. बुधवार को उगते हुए सूर्य को अर्घ्य के साथ ही छठ महापर्व का समापन होगा.

चार दिनों के इस महा अनुष्ठान के दूसरे दिन खरना पर व्रती महिलाएं दिन भर उपवास करती हैं और शाम में भगवान सूर्य को खीर-पूड़ी, पान-सुपारी और केले का भोग लगाने के बाद प्रसाद को बांटा जाता है। इस दिन मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर खीर तैयार की जाती है। इसमें आम की लकड़ी का प्रयोग विशेष तौर पर होता है। मिट्टी के नए चूल्हे पर दूध, गुड़ व अरवा चावल से खीर और गेहूं के आटे की रोटी का प्रसाद बनाया जाएगा। प्रसाद बन जाने के बाद शाम को सूर्य की आराधना कर उन्हें भोग लगाया जाता है और फिर व्रती प्रसाद ग्रहण करती है । सूर्य उपासना का यह अनुपम लोकपर्व चार दिनों तक चलता है जिसका आरंभ नहाय-खाय के साथ होता है। अगले दिन खरना किया जाता है। खरना का मतलब है शुद्धिकरण। व्रती नहाय खाय के दिन एक समय भोजन करके अपने शरीर और मन को शुद्ध करना आरंभ करते हैं जिसकी पूर्णता अगले दिन होती है इसलिए इसे खरना कहते हैं। इस दिन व्रती शुद्ध अंतःकरण से कुलदेवता और सूर्य एवं छठ मैय्या की पूजा करके गुड़ से बनी खीर का नैवेद्य अर्पित करते हैं।

मान्यता है कि जिस चूल्हे पर छठ का प्रसाद बनता है उसपर इससे पहले खाना नहीं बना होना चाहिए. यानी चूल्हा नया होना चाहिए और प्रसाद बनाने के लिए आम की लकड़ी ही जलाई जाती है. आमतौर पर हम घर में जिस चूल्हे का इस्तेमाल करते हैं उसमें प्याज-लहसुन या मांसाहार वाली चीजें बनी होती हैं. तो इसलिए इसपर छठ का प्रसाद नहीं बनाया जाता. छकठ व्रत में बाँस के सुप और दउड़ा में फल और अन्य पूजन सामग्री रखकर नदी सरोवरों तालाब घाट पर अर्ध्य देने की परंपरा है । बाजार में 80 रुपए सुप और डेड से दो सौ रूपये में मिल रहा है दउड़ा । बांस सुप और दउरा बेचने वाले बताते है कि पहले एक बांस पचास रुपये तक में मिल जाता था ,लेकिन अब वही बांस डेढ़ सौ से भी ज्यादा में मिल रहा है। वह भी मुश्किल से आधा दिन तो बांस खोजने व उलाने में लग जाता है। उसके बाद सामान तैयार किया जाता है। दिन भर में बमुश्किल तीन या चार सूप तैयार हो पाता है।मिट्टी के चूल्हे भी छठ पर्व के खरना का प्रसाद तैयार करने के लिए विशेष तौर पर तैयार किये जाते हैं । 80 से लेकर सौ रुपए में खरना के चूल्हे बाजार में मिल रहे है । देवता को चढ़ाए जाने वाले खीर को व्रती स्वयं अपने हाथों से पकते हैं। इसके लिए मिट्टी के नए चूल्हे का प्रयोग किया जाता है। खीर पकाने के लिए शुद्ध अरवा चावल या साठी के चावल का प्रयोग होता है। इंधन के रूप में सिर्फ आम की लकड़ियों का प्रयोग किया जाता है। आम की लकड़ी का प्रयोग करना उत्तम माना गया है।

खरना पूजन के बाद व्रती पहले स्वयं प्रसाद ग्रहण करते हैं और इसके बाद परिवार के लोग। खरना पूजन में एक बार भोजन कर लेने के बाद व्रती को कुछ भी खाना-पीना नहीं होता है। संध्या अर्घ्य और सुबह का अर्घ्य देने के बाद ही व्रती व्रत का परायण कर सकते हैं। खरना के बाद व्रती दो दिनों तक साधना में होते हैं जिसमें उन्हें पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भूमि पर शयन करना होता है। इसके लिए सोने के स्थान को अच्छे से साफ सुथरा करके पवित्र किया जाता है और स्वच्छ बिस्तर बिछाया जाता है।
खरना के बाद अगले दिन प्रसाद बनाए जाते हैं. प्रसाद में ठेकुआ, चावल का बना लड्डू, केला, नारियल, गन्ना प्रमुख है. छठ का प्रसाद बनाते समय स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है. ठेकुआ और चावल के लड्डू के लिए गेंहू और चावल को काफी नियम-निष्ठा से धोकर पिसवाया जाता है. अनाज सुखाते वक्त काफी ध्यान रखना पड़ता है कि कोई पक्षी इसे जूठा ना कर दे या फिर किसी के पांव इसपर नहीं पड़े. ये प्रसाद घर में ही बनते हैं. छठ व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है, न पुरोहित की और ना ही गुरु की. जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के साथ की, जो सेवा के लिए आसानी से उपलब्ध रहता है. इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की भूमिका निरंतर बनी रहती है. यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा भाव और भक्ति भाव से किए गए सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन देखने को मिलता है ।
छठ का लोक गीत

केरवा जे फरेला घवद से/ ओह पर सुगा मेड़राय
उ जे खबरी जनइबो अदिक (सूरज) से/ सुगा देले जुठियाए
उ जे मरबो रे सुगवा धनुक से/ सुगा गिरे मुरझाय
उ जे सुगनी जे रोए ले वियोग से/ आदित होइ ना सहाय
देव होइ ना सहाय।

छठ में सूर्य की आराधना के लिए जिन फलों का प्रयोग होता है, उनमें केला और नारियल का प्रमुख स्थान है। नारियल और केले का पूरा गुच्छा इस पर्व में प्रयुक्त होते हैं। इस गीत में एक ऐसे ही तोते का जिक्र है, जो केले के ऐसे ही एक गुच्छे के पास मंडरा रहा है। तोते को डराया जाता है कि तुम इस पर चोंच मारोगे तो तुम्हारी शिकायत भगवान सूर्य से कर दी जाएगी, जो तुम्हें नहीं माफ करेंगे। पर फिर भी तोता केले को जूठा कर देता है और सूर्य के कोप का भागी बनता है। पर उसकी भार्या सुगनी अब क्या करे बेचारी? कैसे सहे इस वियोग को? अब तो न देव या सूर्य कोई उसकी सहायता कर सकते आखिर पूजा की पवित्रता जो नष्ट की है उसने।

रूनकी-झुनकी बेटी मांगिला, पढ़ल पंडितवा दामाद ये दीनानाथ

छठ पूजा में गाये जाने वाले लोक गीतों में भी शिक्षा का बड़ा ही महत्व को दर्शाया गया है । इन गीतों का तात्पर्य बताता है कि शिक्षा बेहद जरूरी है चाहे वह बेटा हो या बेटी सभी को पढ़ना जरूरी है । साथ ही पर्यावरण रक्षा आउट वातावरण को हरा भरा और स्वक्ष रखने का संदेश भी इन पौराणिक लोक गीतों में झलकता है ।

सुहागिन व्रत के दौरान ये गीत गाकर संतान और सुहाग की कामना करती है- हम तोहसे पुछिले बरतियां करेलू छठ बरतिया से केकरा लागी, हमरो जे बेटवा कवन अइसन बेटवा जे उनके लागी, करीले छठ बरतिया से उनके लागी, अमरूदिया के पात पर उगेले सुरुज देव झांके-झुके, ये करेलू छठ बरतिया से झांके-झुके…।
व्रत करने वाली महिलाओं का कहना है कि हर कार्य से जुड़े गीत का अपना महत्व है। छठ गीत को सुनकर पता चलता है कि व्रती मायके से ससुराल तक की सुख शांति के लिए छठ माता से प्रार्थना करती है…सभवा में बइठन के बेटा मांगिला, गोड़वा दबन के पतोह ये दीनानाथ, रूनकी झुनकी बेटी मांगिला पढ़ल पंडितवा दामाद ये दीनानाथ…ससुरा में मांगिला अनधन सोनवा नईहर में सहोदर जेठ भाई…।

छठ पूजा में व्रत से जुड़े हर कार्य के लिए अलग-अलग गीतों का महत्व है। गेहूं धोने से लेकर व्रत के दौरान दउरा उठाने और अर्घ्य देने तक में इन गीतों से सूर्य देवता और छठ माता से गुहार लगायी जाती है। कोई पुत्र की कामना करता है तो कोई मांग के सिंदूर की। व्रत के दिन अर्घ्य देते समय सूर्य देव को प्रसन्न करने के लिए घाट पर बैठी महिलाएं कई गीत गाती हैं। इनमें -सोने के खड़उआ ये दीनानाथ तिकल लिलाल, हाथ सटकुनिया ये दीनानाथ दुअरिया लेले ठाढ़, सबके डलियवा ये दीनानाथ लिहल मंगाय, बाझिन डलियवा ये दीनानाथ पड़ले तवाय…जोड़े-जोड़े सुपवा तोहे चढ़इबो हो, मईया खोल ना हे केवडि़या हे दर्शनवा देहू न…डोमिन बेटी सूप लेले ठाढ़ बा, उग हो सुरुज देव अरघ के बेर, भोरवे में नदिआ नहाइला अदित मनाईला, बाबा फूलवा अछतवा चढ़ाइला सबगुन गाईला हो, बाबा अंगने में मांगिला अंजोर ई मथवा नवाईला हो…गोड़ खड़उआ ये अदितमल सोहे तिलक लिलार, हथवा में सोहे सब रंग बाती तोहे अरघ दिआय…सात ही घोड़वा सुरुज देव दस असवार, बरती दुअरिया छठिअ मईया करीले पुकार…प्रमुख हैं।

घटवा के आरी-आरी रोपब केरवा…
शुरुआत होती है छठ घाट की सफाई से। घाट पर उगे घास को काटना, मकड़ी का जाला हटाना और वहां फूल-पौधे लगाने के दौरान ये गीत गाती हैं- घटवा के आरी- आरी रोपब केरवा, बोअब नेबूआ… कोपी-कोपी बोलेले सूरुज देव सुनअ सेवक लोग, मोरे घाटे दुबिया उपज गईले मकरी बसेरा लेले, वितनी से बोलेले सेवक लोग सुनअ ऐ सुरुज देव, रउआ घाटे दुबिया छटाई देहब मकड़ी भगाई देहब..।

ले ले अईह हो भईया केरा के घवदिया
उसके बाद होती है फल और अन्य सामग्री की खरीदारी। जिसके लिए व्रती अपने भाई से ये गीत गाकर गुहार लगाती हैं, मोरा भईया जायेला महंगा मुंगेर लेले अईह हो भईया गेंहू के मोटरिया, अबकी के गेंहूआ महंग भईले बहिनी, छोड़ी देहू ये बहिनी छठी के बरतियां, नाही छोड़ब हो भईया छठीया बरतियां लेले अईह हो भईया केरा के घवदिया। पटना के हाट पर नरियल, नरियल कीनबे जरूर, हाजीपुर केरवा बेसहबे, अरघ देबे जरूर…।

मरबो रे सुगवा धनुख से
व्रत के दिन अर्घ्य से पहले दउरा सजाने के समय व्रती गाती हैं – केरवा जे फरेला घवद से ओहपर सूग्गा मेडराय, मरबो रे सुगवा धनुख से सुगा गिरे मुरछाई…कांच ही बांस के बहंगियां, बहंगी लचकत जाए, होई न बलमजी कहरिया बहंगी घाटे पहुंचाई… चार ही चक्का के मोटरवा, मोटरवा बईठी ससुर जी, पेनी हाली-हाली धोतिआ पियरिया अरघ की बेर भईल…।

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