कर्बला में इमाम हुसैन पे किये गए जुल्म को मुहर्रम में लोग याद करते और आंसू बहाते हैं

इमाम हुसैन का सबसे बड़ा पैगाम था- जुल्म का इस्लाम से कोई रिश्ता नहीं


फुलवारी शरीफ। कर्बला में इमाम हुसैन पे किये गए जुल्म को मुहर्रम में लोग याद करते और आंसू बहाते हैं, लेकिन इस बार कोरोना संकट को लेकर सरकार के गाईडलाइन के चलते सामूहिक व सार्वजानिक जमावड़े पर रोक लगा है। इस्लामिक मान्यता वाले लोगों को इस बार अपने-अपने घरों में ही हुसैन की शहादत को याद करना है और फातेहा आदि की रस्म अदायगी भी कर्बला न जाकर घरों में ही करनी है। कोरोना महामारी ने इस बार मुहर्रम के ढोल को भी बजाने से रोके रखा है। मुहर्रम के ढोल बजाते ही इलाके में लोग इमाम हुसैन की शहादत को याद करने लगते थे लेकिन इस कोरोना काल में ढोल की आवाज के बजाये हर गली-मुहल्ले में सन्नाटा पसरा नजर आ रहा है।
फुलवारी शरीफ के सय्यद इमरान गणि अधिवक्ता, हारून नगर के समाजसेवी व्यवसायी हाजी नशुर अजमल नुशी, हाजी मुश्ताक अहमद हनी, वसीका नवीस हाजी, मो. जानेशार, शिक्षाविद खुर्शीद हसन सहित कई इस्लामिक धर्मावलंबियों ने बातचीत में बताया कि पैगम्बर हजरत मुहम्मद स. अ. के नाती इमाम हुसैन का सबसे बड़ा पैगाम था, जुल्म का इस्लाम से कोई रिश्ता नहीं और कर्बला में इमाम हुसैन की शहादत के बाद मानवता की जीत हुयी। मुहर्रम का चांद देखते ही इमाम हुसैन के चाहने वाले उनकी शहादत को याद करके आंसू बहाते हैं, शोक सभाएं (मजलिस ) आयोजित करते हैं और ताजिया रखते हैं। हर मुसलमान इमाम हुसैन पे हुए जुल्म को सून के दुखी रहता है और अपने-अपने तरीके से उनकी कुर्बानियों को याद करता है। पहली मुहर्रम से मुसलमानों के हर समुदाय के लोग ताजिया या अजादारी का जुलुस निकालने लगते हैं और दसवीं मुहर्रम आशूरा को ताजिया अपने-अपने शहर की कर्बला में दफन कर देते हैं। कोरोना काल में न ताजिया स्थापित करना है और न ही मजलिस या अखाडा ही निकाले जायेंगे।
मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर हिजरी का पहला महीना है और इस महीने की इस्लाम धर्म में बड़ी अहमियत रही है और इस महीने रोजा रखना पुण्य का काम है। सन 680 में पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स. के नाती इमाम हुसैन को जालिम बादशाह यजीद की फौज ने उनके परिवार के साथ इराक के एक सुनसान इलाके में घेर के भूखा-प्यासा शहीद कर दिया और औरतों तथा बच्चों को कैदी बना के जुल्म करते यजीद के दरबार सीरिया में ले जाया गया। जिस दिन इमाम हुसैन को उनके परिवार के साथ शहीद किया गया वो मुहर्रम के महीने का दसवां दिन था, जिसे आशूरा कहते हैं। शिया मुसलमान इस आशूरा के दिन रोजा नहीं रखता और पूरा दिन इमाम हुसैन की शहादत के दु:ख में कुछ खाता पीता नहीं और ताजिया दफन करने बाद ही पानी पीता है। कर्बला में इमाम हुसैन पे किये गए जुल्म और शहादत की घटना उस दौर के बादशाह यजीद की फौज द्वारा अंजाम दी गयी अपने आप में बड़ी वीभत्स और निंदनीय है और शायद इसी कारण हमारे देश में सभी मुसलमान इमाम हुसैन की शहादत पे दुखी होते हैं।
वहीं मुसलमानों का शिया समुदाय पहली मुहर्रम से शोक सभाएं (मजलिस ) का आयोजन इमामबाड़ों, घरों में करने लगता है और जुलूस अजादारी का निकालता है, जिसमें प्रतीक चिन्ह जैसे अलम, ताजिया, तुर्बत, जुल्जिनाह इत्यादि कर्बला को याद करने के लिए शामिल किये जाते हैं और काले कपड़े पहने इमाम हुसैन की शहादत पे आंसू बहाने वाले नौहा मातम करते, कर्बला की दास्तान वहां पे हुए जुल्म को बताते, किसी पास के दूसरे इमामबाड़े या शहर की कर्बला तक ले जाते हैं। इस जुलूसों में इमामबाड़ों में हर धर्म के लोगों का स्वागत हुआ करता है। दस दिनों तक लोग इमामबाड़ों, घरों के आसपास और शहर में घूम-घूम के लोगों को इमाम हुसैन की प्यास को याद करके पानी और शरबत पिलाते हैं। ये लोग इमाम हुसैन की शहादत से बड़ा कोई गम नहीं कहते हुए मुहर्रम का चांद होते ही दु:ख की निशानी काले कपड़े पहन लेते हैं, औरतें जेवर उतार देती हैं, चूड़ियां तोड़ देती हैं और दो महीने आठ दिन खुशी का कोई काम नहीं करते। दस दिनों तक यह सिलसिला चलता रहता है और दस मुहर्रम आशूरा को हर मुसलमान जो अपने-अपने तरीके से ताजिया रखके हुसैन को याद कर रहा था, अपने-अपने ताजिये को शहर की कर्बला में दफन कर देता है।

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