September 16, 2025

‘नेता पुत्रों’ और वंशवाद की बेल पर उगती भाजपा में क्यों भूमिहारों और ब्राह्मणों की नाराज़गी अब विस्फोटक

  • चार चुनावों से बिहार की “स्लीपिंग सीट” कुम्हरार: सबसे कम मतदान, सबसे ज्यादा असंतोष और सबसे खतरनाक समीकरण

पटना। बिहार की राजधानी पटना की कुम्हरार विधानसभा सीट, जो लगातार चार चुनावों से पूरे राज्य में सबसे कम मतदान प्रतिशत के लिए चर्चा में रही है, इस बार राजनीति का नया केंद्र बन चुकी है। मौजूदा विधायक और बीजेपी के वरिष्ठ नेता अरुण कुमार सिन्हा की उम्र अब 75 के करीब हो चुकी है। संगठन के भीतर यह मान लिया गया है कि अगली लड़ाई किसी युवा चेहरे को मैदान में उतारे बिना कठिन होगी। ऐसे में कुम्हरार में एक दर्जन से अधिक नए दावेदारों की कतार खड़ी हो गई है। लेकिन खेल सिर्फ टिकट की खींचतान तक सीमित नहीं है, बल्कि जातीय समीकरण, वंशवाद और मतदाता उदासीनता मिलकर इस सीट को हाई-वोल्टेज बना रहे हैं।
लगातार चार चुनावों से सबसे कम मतदान
कुम्हरार विधानसभा सीट ने पिछले एक दशक में ‘लो-टर्नआउट सीट’ की पहचान बना ली है। निर्वाचन आयोग के आधिकारिक आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं—
2015 विधानसभा चुनाव : 38.25% मतदान
2020 विधानसभा चुनाव : 35.28% मतदान
2024 लोकसभा चुनाव : 38.07% से कम मतदान
इन आंकड़ों के मुताबिक, कुम्हरार न सिर्फ पटना बल्कि पूरे बिहार में सबसे कम मतदान वाली सीट रही है।
यही वजह है कि जमशेदपुर की टाटा मेमोरियल फॉर स्टैटिस्टिक्स एंड सोशल सर्विस ने इस पर गहन अध्ययन शुरू किया।
टाटा की स्टडी: शहरीकरण, पलायन और राजनीतिक उदासीनता
रिपोर्ट के मुताबिक, कुम्हरार शहरी स्वरूप वाली सीट है। यहां बड़ी संख्या में उच्च-मध्यम वर्ग और नौकरीपेशा लोग रहते हैं। इनमें से एक बड़ा हिस्सा या तो पलायन कर चुका है या मतदान को लेकर सक्रिय नहीं दिखता। कायस्थ समाज की आबादी यहां लगभग 1 लाख आंकी गई, लेकिन इनमें से सक्रिय मतदान केवल 12.7% रहा।
भूमिहार और ब्राह्मण समाज की संख्या भी 1 लाख से अधिक है, मगर उनका मतदान प्रतिशत सिर्फ 47.6% पर सिमटा।
यानी, बड़ी आबादी होने के बावजूद वोटिंग मशीन तक पहुंचने वालों की संख्या बेहद कम है। स्टडी साफ कहती है पलायन और वंशवादी राजनीति से उपजा असंतोष ही मतदाता उदासीनता की जड़ हैं।
जन सुराज की एंट्री और कुम्हरार
बिहार की सबसे कम वोटिंग वाली सीट पर भूमिहार ब्राह्मण समीकरण से गरमाई सियासत।। प्रशांत किशोर (पीके) की पहचान हमेशा से चुनावी रणनीति के मास्टरमाइंड की रही है। इस बार उन्होंने कुम्हरार को लेकर जो दांव चला, उसने सियासत की पूरी बिसात हिला दी है। जन सुराज के सर्वे में साफ हुआ कि भूमिहार समाज, जिसकी वोटिंग हिस्सेदारी सबसे अधिक है, पिछले 40 साल से प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व से वंचित रहा है। यही उनकी सबसे बड़ी नाराज़गी है। इतिहास गवाह है—1990 के विधानसभा चुनाव में अश्विनी चौबे को कुम्हरार (तब पटना मध्य) से टिकट मिलते-मिलते रह गया। वे अपने मित्र सुशील मोदी के आग्रह पर पीछे हटे और मोदी विधायक बने। इसके बाद अरुण सिन्हा ने लगातार 20 साल तक इस सीट पर कब्जा बनाए रखा।जिस से भूमिहार ब्राह्मण समाज सिर्फ ‘वोट बैंक’ बना रहा, प्रतिनिधि नहीं। इसी समीकरण को भांपते हुए पीके ने भूमिहार समाज से आने वाली बंदना कुमारी को संभावित उम्मीदवार के तौर पर आगे बढ़ाने की रणनीति बनाई जिसका क्षेत्र में जबरदस्त उत्साह दिख रहा है। यह फैसला बीजेपी समेत सभी दलों के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है।
नाराज़गी और बीजेपी का वंशवाद कुम्हरार में सियासी विस्फोट तय!
बीजेपी का दावा रहा है कि वह परिवारवाद से लड़ती है। मगर हकीकत यह है कि राजधानी पटना की राजनीति में खुद उसके नेताओं पर वंशवाद के आरोप जोर पकड़ते रहे हैं।
मौजूदा विधायक अरुण सिन्हा के बेटे आशीष सिन्हा टिकट के प्रमुख दावेदार हैं। सुशील मोदी के छोटे बेटे अक्षय अमृतांशु भी कुम्हरार से दौड़ में शामिल बताए जा रहे हैं।
बगल की पटना सिटी सीट पर नंदकिशोर यादव अपने बेटे नितिन यादव को टिकट दिलाने की कोशिश कर रहे हैं।
यह सूची यहीं खत्म नहीं होती। पटना की राजनीति में पहले से ही नेता पुत्रों की लंबी कतार है।
दीघा से संजीव चौरसिया (पुत्र गंगा प्रसाद चौरसिया)
बांकीपुर से नितिन नवीन (पुत्र नवीन प्रसाद)
ऋतुराज सिन्हा (पुत्र आर.के. सिन्हा)
दीघा से अभिमन्यु कुमार (पुत्र रामकृपाल यादव)
दानापुर से सहजानंद कुमार (पुत्र आशा सिन्हा)
यानी पटना ही वंशवाद के आरोपों का सबसे बड़ा सबूत है,जिस से पार्टी हर हाल में बचना चाहेगी।
भूमिहार समीकरण और डैमेज कंट्रोल
कुम्हरार विधानसभा में भूमिहार वोटरों की संख्या इतनी निर्णायक है कि उनके समर्थन के बिना कोई भी पार्टी जीत नहीं सकती। लेकिन लंबे समय से प्रतिनिधित्व न मिलने की टीस अब खुले गुस्से में बदल रही है। जन सुराज ने इसी को भुनाने की रणनीति बनाई है। बंदना कुमारी जो की भूमिहार ब्राह्मण समाज से आती है उनको सामने लाकर पीके ने बीजेपी और अन्य दलों को जबरदस्त चुनौती दी है। जिस से RJD भी इसी समीकरण के तहत इसी समाज के एक युवा चेहरे को उतारने का मन लगभग बना चुकी हैं। बीजेपी ने भी इस खतरे को भांपा है। विजय सिन्हा का कद बड़ा करना और आशुतोष कुमार जैसे भूमिहार नेताओं को आगे लाकर पार्टी ने डैमेज कंट्रोल का प्रयास कर रही है। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यह असंतोष समय के साथ और गहरा हुआ है।
सबसे कम वोटिंग से सबसे बड़ी सियासी चुनौती
कुम्हरार विधानसभा कम वोटिंग, पलायन, परिवारवाद और जातीय समीकरण मिलकर लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती बने हैं। बीजेपी के लिए यह सीट महज़ एक चुनावी जंग नहीं, बल्कि उसकी संगठनात्मक छवि का भी इम्तहान है। वहीं, जन सुराज अगर भूमिहार ब्राह्मण समाज को साधने में सफल रहा तो यह सीट आने वाले विधानसभा चुनाव में बिहार की राजनीति की दिशा बदल सकती है।

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