November 18, 2025

पति-पत्नी के विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला, चुपके से की गई कॉल रिकॉर्डिंग को माना जाएगा सबूत, निर्देश जारी

नई दिल्ली। भारतीय समाज में विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता है, लेकिन जब यह रिश्ता विवादों का कारण बनता है, तब न्यायालय को भी हस्तक्षेप करना पड़ता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया है जो वैवाहिक विवादों में तकनीकी सबूतों के महत्व को स्पष्ट करता है।
कॉल रिकॉर्डिंग को माना जाएगा वैध साक्ष्य
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को स्पष्ट किया कि यदि कोई पति अपनी पत्नी की जानकारी के बिना उसकी कॉल रिकॉर्ड करता है और उसे अदालत में प्रस्तुत करता है, तो वैवाहिक विवादों में उसे सबूत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। कोर्ट ने यह फैसला पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के निर्णय को पलटते हुए दिया, जिसमें कहा गया था कि ऐसा करना निजता के अधिकार का उल्लंघन है और इसे साक्ष्य नहीं माना जा सकता।
निजता बनाम वैवाहिक पारदर्शिता
सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ — जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा — ने कहा कि वैवाहिक जीवन में निजता का अधिकार सीमित होता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 122 के अनुसार, पति-पत्नी के बीच की बातचीत गोपनीय मानी जाती है, लेकिन तलाक जैसे मामलों में यह नियम पूरी तरह लागू नहीं होता। कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक विवादों में कई बार घटनाएं केवल पति-पत्नी के बीच घटती हैं, जिनका कोई प्रत्यक्ष गवाह नहीं होता, ऐसे में तकनीकी साक्ष्य जैसे कॉल रिकॉर्डिंग मददगार हो सकते हैं।
बठिंडा से सुप्रीम कोर्ट तक का मामला
यह मामला पंजाब के बठिंडा से शुरू हुआ, जहां एक पति ने फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी दी और पत्नी की बातचीत की रिकॉर्डिंग को सबूत के रूप में प्रस्तुत किया। फैमिली कोर्ट ने इसे स्वीकार कर लिया। पत्नी ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी, जहां रिकॉर्डिंग को अवैध ठहराया गया। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए रिकॉर्डिंग को वैध साक्ष्य माना।
अन्य संवैधानिक अधिकारों के साथ संतुलन आवश्यक
पति की ओर से पेश वकील ने तर्क दिया कि निजता का अधिकार न तो पूर्ण है और न ही अबाधित। इसे अन्य मौलिक अधिकारों के साथ संतुलन में रखा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को स्वीकार करते हुए कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत मिलने वाला निजता का अधिकार भी एक सामाजिक संदर्भ में देखा जाना चाहिए, खासकर तब जब मामला सार्वजनिक न्याय और सत्य की खोज से जुड़ा हो।
एडल्टरी और स्त्री के अधिकारों पर हाईकोर्ट की टिप्पणी
दिल्ली हाईकोर्ट ने भी हाल ही में एक फैसले में एडल्टरी यानी व्यभिचार से जुड़ा एक महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किया। हाईकोर्ट ने उस पुराने पितृसत्तात्मक सोच की आलोचना की जिसमें पत्नी को पति की संपत्ति माना जाता था। अदालत ने कहा कि यह मानसिकता महाभारत काल से चली आ रही है, जब द्रौपदी को युधिष्ठिर ने जुए में दांव पर लगा दिया था। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला केवल एक कानूनी निर्णय नहीं, बल्कि वैवाहिक जीवन, निजता और तकनीकी सबूतों के बीच संतुलन का मार्गदर्शन है। यह स्पष्ट करता है कि यदि किसी विवाद में सच्चाई उजागर करनी है, तो तकनीकी साधनों की सहायता ली जा सकती है, भले ही वह गोपनीयता के दायरे में आती हो। साथ ही यह समाज को यह संदेश भी देता है कि स्त्रियों को संपत्ति या निर्बल पात्र मानने की सोच अब असंवैधानिक है। यह फैसला न्याय, समानता और पारदर्शिता की दिशा में एक मजबूत कदम है।

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