नेपाल के बाद फ्रांस में भी सड़कों पर उतरे लोग, सरकार के खिलाफ प्रदर्शन, 200 से अधिक उपद्रवी गिरफ्तार

नई दिल्ली। नेपाल में हाल ही में हुए उग्र प्रदर्शनों के बाद अब फ्रांस भी राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता की चपेट में आ गया है। राजधानी पेरिस सहित देशभर के कई शहरों में एक लाख से ज्यादा लोग सड़कों पर उतर आए हैं। इन प्रदर्शनकारियों की मुख्य मांग राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के इस्तीफे की है। विरोध इतना उग्र हो चुका है कि जगह-जगह आगजनी और हिंसा की घटनाएं सामने आ रही हैं।
प्रदर्शन का कारण और पृष्ठभूमि
फ्रांस में यह विरोध मुख्य रूप से बजट नीतियों के खिलाफ शुरू हुआ है। पूर्व प्रधानमंत्री फ्रांस्वा बायरो ने सार्वजनिक खर्च में भारी कटौती की थी। इस कटौती के कारण करीब 4 लाख करोड़ रुपए कम कर दिए गए, जिससे पेंशन पर रोक लगी और कई सामाजिक योजनाओं का बजट घटा दिया गया। इन फैसलों से आम नागरिकों में असंतोष गहराता चला गया। इसी नाराजगी ने ‘ब्लॉक एवरीथिंग’ यानी ‘सब कुछ रोक दो’ आंदोलन का रूप ले लिया।
‘ब्लॉक एवरीथिंग’ मूवमेंट
यह आंदोलन सोशल मीडिया के जरिए शुरू हुआ। 10 सितंबर को एक ऑनलाइन अभियान में लोगों से अपील की गई कि वे 11 सितंबर से देशभर में कामकाज ठप कर दें। इस अभियान ने तेजी से जोर पकड़ा और धीरे-धीरे हजारों लोग इसमें शामिल होते चले गए। 30 से ज्यादा शहरों और कस्बों में सड़कें जाम कर दी गईं और सरकार के खिलाफ नारेबाजी शुरू हो गई।
हिंसा और पुलिस की कार्रवाई
बुधवार को राजधानी पेरिस में हालात काफी बिगड़ गए। उपद्रवियों ने पुलिस पर कूड़ेदान फेंके, बसों और वाहनों में आग लगा दी। पुलिस को हालात काबू में करने के लिए आंसू गैस के गोले दागने पड़े। गृह मंत्री ब्रूनो रिटेलो ने जानकारी दी कि सिर्फ बुधवार को ही 200 से ज्यादा उपद्रवियों को गिरफ्तार किया गया। सरकार ने हालात बिगड़ने की आशंका को देखते हुए 80 हजार पुलिसकर्मियों की तैनाती की है।
राजनीतिक दलों और संगठनों का समर्थन
इस आंदोलन को वामपंथी पार्टी फ्रांस अनबाउंड (LFI) का भी समर्थन मिला है। इसके अलावा देश की कई ट्रेड यूनियनें भी विरोध में शामिल हो गई हैं। यूनियनों ने घोषणा की है कि 18 सितंबर को बजट प्रस्तावों के खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन किया जाएगा। इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि आंदोलन सिर्फ आम नागरिकों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे राजनीतिक और संगठनात्मक समर्थन भी मिल रहा है।
राष्ट्रपति मैक्रों की चुनौतियां
फ्रांस में हालात और भी कठिन इसलिए हो गए हैं क्योंकि एक साल में यह चौथी बार प्रधानमंत्री बदले गए हैं। सोमवार को विश्वास मत न मिलने के कारण प्रधानमंत्री फ्रांस्वा बायरो को इस्तीफा देना पड़ा। इससे पहले भी गैब्रियल अटल और माइकल बर्नियर इसी तरह पद छोड़ चुके थे। अब राष्ट्रपति मैक्रों ने रक्षा मंत्री सेबेस्टियन लेकोर्नू को नया प्रधानमंत्री बनाया है। लेकोर्नू मैक्रों के करीबी माने जाते हैं और उनसे उम्मीद की जा रही है कि वे संसद को 2026 के बजट पर सहमत कर पाएंगे।
लोगों की नाराजगी के कारण
फ्रांस की जनता का गुस्सा केवल बजट कटौती तक सीमित नहीं है। पेंशन और सामाजिक योजनाओं में कटौती ने आम नागरिकों की आर्थिक मुश्किलें बढ़ा दी हैं। दूसरी ओर, देश की धनी कंपनियों और उनके प्रमुखों के खिलाफ भी आक्रोश दिख रहा है। प्रदर्शनकारियों ने एलवीएमएच के सीईओ बर्नार्ड अर्नाल्ट के विरोध में पोस्टर लहराए। इससे यह साफ होता है कि लोगों को लगता है कि सरकार अमीर तबके का साथ दे रही है जबकि गरीब और मध्यम वर्ग की उपेक्षा कर रही है।
स्थिति की गंभीरता
फ्रांस में लगातार बदलते प्रधानमंत्री और अस्थिर राजनीतिक हालात ने प्रशासन की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। अब तक जो भी प्रधानमंत्री नियुक्त हुए, वे वित्तीय घाटा कम करने में असफल रहे हैं। बजट घाटा और सामाजिक असंतोष दोनों मिलकर हालात को और विस्फोटक बना रहे हैं। यदि जल्द ही कोई ठोस समाधान नहीं निकला तो यह आंदोलन और उग्र हो सकता है। फ्रांस इस समय गहरे राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। जनता सड़कों पर है, सरकार असहाय दिख रही है और विपक्ष इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहा है। राष्ट्रपति मैक्रों के सामने दोहरी चुनौती है—एक तरफ जनता का विश्वास जीतना और दूसरी तरफ संसद को बजट के मुद्दे पर सहमत कराना। अगर यह संकट जल्द नहीं सुलझा, तो फ्रांस में राजनीतिक अस्थिरता और गहराती जाएगी और सामाजिक अशांति का दायरा और बढ़ सकता है।
