बिहार से बाहर जाने के लिए ट्रेनों में भारी भीड़, स्टेशनों पर उमड़े लोग, प्रवासियों की वोटिंग में कोई रुचि नहीं
पटना। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के लिए 6 और 11 नवंबर को मतदान होना है। राज्य में चुनावी माहौल लगातार तेज हो रहा है, राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए रैलियां और सभाएं कर रहे हैं। मगर इस चुनावी गतिविधि के बीच एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है कि इस बार मतदान प्रतिशत कितना रहेगा। अनुमान लगाया जा रहा है कि पिछले चुनावों की तुलना में इस बार मतदान में गिरावट आ सकती है। इसका प्रमुख कारण है बड़ी संख्या में मजदूरों और कामगारों का राज्य से बाहर जाना।
रेलवे स्टेशनों की स्थिति
पटना, गया, दरभंगा, भागलपुर, मुजफ्फरपुर और सिवान के रेलवे स्टेशनों पर भारी भीड़ का नजारा देखने को मिल रहा है। छठ पूजा के बाद, आमतौर पर लोग घरों में कुछ दिन रुकते थे, लेकिन इस बार स्थिति अलग है। काम की मजबूरी के कारण हजारों लोग दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, सूरत, पंजाब और मध्य प्रदेश की ओर लौट रहे हैं। दानापुर मंडल से रोजाना 100 से अधिक ट्रेनें देश के अलग-अलग हिस्सों में जा रही हैं। संपूर्ण क्रांति, श्रमजीवी, मगध, पाटलिपुत्र एक्सप्रेस समेत कई ट्रेनों में जनरल डिब्बों की भरावट क्षमता से अधिक लोग सफर कर रहे हैं। कुछ ट्रेनों में यात्रियों की संख्या 150 प्रतिशत तक पहुंच गई है।
छठ के बाद भी जारी पलायन
छठ पर्व बिहार का सबसे बड़ा सांस्कृतिक और भावनात्मक त्योहार है। आमतौर पर प्रवासी मजदूर इस त्योहार में घर जरूर आते हैं और कई बार चुनाव के कारण भी रुकते हैं। लेकिन इस बार परिस्थिति अलग है। त्योहार खत्म होते ही लोग वापस अपने कार्यस्थलों की ओर जा रहे हैं। इसका सीधा मतलब है कि रोजगार की मजबूरी अभी भी बिहार में बड़ी चुनौती है। जिन परिवारों की आजीविका बाहर के राज्यों में चलती है, उनके लिए मतदान द्वितीय प्राथमिकता बन गया है।
रोजगार की मजबूरी
जनरल ऑफ माइग्रेशन अफेयर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार से 55 प्रतिशत लोग रोजगार के लिए बाहर जाते हैं। पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में खेत, फैक्ट्रियों, निर्माण कार्य और छोटे व्यवसायों में बड़ी संख्या में बिहार के मजदूर कार्यरत हैं। रिपोर्ट के अनुसार पंजाब की ओर जाने वाले बिहारियों की संख्या 6.19 प्रतिशत है। इन लोगों का कहना है कि यदि राज्य में ही पर्याप्त काम होता तो उन्हें अपना घर-परिवार छोड़कर बाहर जाने की जरूरत नहीं पड़ती।
प्रवासियों की पीड़ा और चुनाव में दूरी
जब इन प्रवासी मजदूरों से बात की गई तो उनके विचारों में एक बड़ी सच्चाई सामने आई। कई मजदूरों का कहना था कि वोट देना जरूरी है, लेकिन पेट पालना उससे भी ज्यादा जरूरी है। किसी ने कहा कि अगर 15 दिन और रुकते हैं तो पगार कट जाएगी, जिससे परिवार को परेशानी होगी। एक मजदूर ने कहा कि अगर वोट देकर रुक भी जाएं तो इससे क्या फर्क पड़ता है, क्योंकि सरकारें चुनाव के बाद जनता की तकलीफें भूल जाती हैं। दूसरी ओर कुछ लोगों ने यह कहते हुए निराशा जताई कि उन्हें पता है उनका मतदान 11 नवंबर को है, लेकिन मजबूरी में उन्हें पहले ही लौटना पड़ रहा है। यह स्थिति दर्शाती है कि रोजगार और आजीविका की चिंता लोगों के लिए चुनावी प्रक्रिया से अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।
मतदान प्रतिशत पर प्रभाव
विशेषज्ञों के अनुसार प्रवासी मजदूरों की अनुपस्थिति का सीधा असर मतदान प्रतिशत पर पड़ता है। बिहार में हर चुनाव के दौरान यह समस्या सामने आती है, और इस बार भी कई क्षेत्रों में मतदान कम होने की पूरी संभावना है। यह स्थिति निर्वाचन आयोग और राजनीतिक दलों के लिए गंभीर चुनौती है।
राज्य में पर्याप्त और स्थायी रोजगार स्थापित करने की आवश्यकता
विशेषज्ञों का मानना है कि राज्य सरकार को रोजगार आधारित नीतियों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। अगर राज्य में पर्याप्त और स्थायी रोजगार के अवसर विकसित किए जाएं, तो लोग अपने गांव-घर में रहकर काम कर सकेंगे। इससे न केवल पलायन की समस्या कम होगी, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता की भागीदारी भी बढ़ेगी। बिहार में चुनावी सरगर्मी भले ही चरम पर हो, लेकिन रोजगार की चुनौतियों ने प्रवासियों को मतदान प्रक्रिया से दूर कर दिया है, और यह चिंता का विषय है कि उनकी अनुपस्थिति लोकतांत्रिक भागीदारी को कितना प्रभावित करेगी।


